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Tuesday, 16 February 2016
First they came for ..,I did not speak out - Martin Niemöller
First they came for the Communists
And I did not speak out
Because I was not a Communist
Then they came for the Socialists
And I did not speak out
Because I was not a Socialist
Then they came for the trade unionists
And I did not speak out
Because I was not a trade unionist
Then they came for the Jews
And I did not speak out
Because I was not a Jew
Then they came for me
And there was no one left
To speak out for me
After the Second World War, Martin Niemöller called it... and today we’re living it – they’ve already come for the Muslims in Dadri,
They came for Rohith at Hyderabad ...
they’ve already come for the communists in JNU,
They came for FTI...
for the trade unionists,
the queer couples,
the atheists,
the intellectuals.
They’re coming after anyone who will defend the spirit, this country was founded on....
idolatry of Nation-Rabindranath Tagore
Even though from childhood I had been taught that the idolatry of Nation is almost better than reverence for God and humanity, I believe I have outgrown that teaching, and it is my conviction that my countrymen will gain truly their India by fighting against that education which teaches them that a country is greater than the ideals of humanity.
-Rabindranath Tagore
Our brand is a Crisis - रविश कुमार
Our brand is a Crisis - रविश कुमार
अमरीका में तो चौदह साल ये फ़िल्म आ गई थी, नाम है Our Brand is a crisis. । फ़िल्म की कहानी Jane bodnie के किरदार पर आधारित है जो अमरीका में प्रचार रणनीतियों और प्रबंधन के काम में माहिर मानी जाती है । जेन को बोलिविया के एक नेता की तरफ से बुलावा आता है जो अपनी नकारात्मक छवि से उबरने की कोशिश कर रहा है । फ़िल्म आपको दिखाती है कि कैसे लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़ कर, चंद हफ़्तों के भीतर नाटकीय ढंग से चुनाव को अपने पक्ष में मोड़ा जाता है और जीतने वाला बाद में तानाशाह निकल जाता है । टैक्स बढ़ा देता है और अंतरार्ष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों को मानने लगता है और जिस जनता ने उसे चुना है उसी पर ज़ुल्म ढाता है ।
फ़िल्म 2002 की है । जेन की टीम के सदस्य चर्चा कर रहे हैं कि बोलिविया में चुनाव हो रहे हैं । अर्थव्यवस्था संकट में है और लोकतंत्र पर ख़तरा मँडरा रहा है । हमें जिसके प्रचार का काम मिला है वो काफी पैसा दे रहा है लेकिन एक नंबर का अवसरवादी नेता है जो राष्ट्रपति पद के लिए खड़ा हो रहा है । फ़िल्म का एक एक सीन याद रखने लायक है । जेन की टीम आते ही कह देती है कि उस नेता के प्रति लोगों की राय अच्छी नहीं है । वह टीवी कैमरों का सामना नहीं कर पाता है । लाखों लोगों के सामने बोल नहीं पाता । जेन की टीम देखती है कि कैसे बोलिविया में जगह जगह प्रदर्शन हो रहे हैं । एक नेता की तलाश हो रही है जो बोलिविया को इस संकट से मुक्ति दिला सके और फिर कास्टीयो को मुक्तिदात के रूप में उतार दिया जाता है ।
फ़िल्म में नेता का नाम है कास्टीयो । टीम पहली ही बैठक में बता देती है कि आपका कोई चांस नहीं है । आपकी छवि अच्छी नहीं है । जरूरी है कि हम आपके प्रचार अभियान में लोगों की आवाज़ शामिल करें और छवि को बदल दें । जेन को पता है कि यह नहीं जीतेगा लेकिन वह अपने व्यावसायिक मिशन पर है । उसका एक मन बार बार कहता भी है कि यह मुल्क के लिए अच्छा नहीं है लेकिन पेशेवर मन झूठ और नाटकीयता का सहारा लेकर कोस्टीयो को चर्चा के केंद्र में ला देता है । नए नए प्रतीक ढूँढे जाते हैं । तय होता है कि मज़दूरों को प्रभावित करने के लिए कैसे उनके जीवन से जुड़ी चीज़ों के बारे में बात करनी है । किस्से गढ़े जाते हैं । तर्क की जगह कल्पना ले लेती है । बक़ायदा उसकी टीम कास्टीयो को बताती है कि कैमरे के सामने कैसे पेश आया जाता है । कैसे उसे एक बच्ची को बचाना है ताकि उसकी छवि अवतार पुरुष के रूप में पेश किया जा सके ।
प्रचार टीम की सबसे खास बात है कि जब वो देखती है कि कास्टीयो में कोई दम नहीं है तो वह बोलिविया के संकट को ही ब्रांड बना लेती है । बोलिविया संकट में है और कास्टीयो को उसके उद्धारक के रूप में पेश किया जाता है । जेन कहती है कि यह इतना बेकार नेता है कि जब भी देखती हूँ मुझे उल्टी आती है ।
कास्टीयो को साहसिक बताने के लिए एक सीन प्रायोजित की जाती है । कास्टीयो जब लोगों से मिल रहा होता है तभी उस पर कोई अंडा फेंकता है । कास्टीयो ग़ुस्से में उसे मार बैठता है । अब इस घटना को मौके में बदलने की रणनीति बनती है । बक़ायदा कास्टीयो को बताया जाता है कि वो अपनी क़मीज़ की बाँह मोड़ ले और प्रेस के बीच जाकर कहे कि घटना का अफ़सोस तो है मगर बोलिविया के लिए वो अब बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं । इस एक प्रेस कांफ्रेंस से कास्टीयो की रेटिंग बढ़ने लगती है और वह चर्चा के केंद्र में आने लगता है ।
रणनीति बनती है कि यह चुनाव नहीं है । यह एक संकट है । हम इस संकट को बेचेंगे । हमारा नेता अहंकारी है, मिलनसार नहीं है लेकिन वो फ़ाईटर है । वही इस देश को बचायेगा । सामाजिक आर्थिक संकट से सिर्फ वही बचा सकता है । आप याद करेंगे तो भारत में प्रचार तंत्र अब यही करने लगे हैं । सबकुछ एक चेहरे के आसपास बुना जाता है । उसे देवदूत के रूप में पेश किया जाता है । सारी बात चाल-ढाल तक सीमित कर दी जाती है । नीतियों पर चर्चा नहीं होती । वो कैसा है इस पर बहस केंद्रीत हो जाती है । इस फ़िल्म का एक एक सीन भारत के चुनावी क़िस्सों से जा मिलता है । ऐसा नहीं है कि चुनावी हार और जीत सिर्फ प्रबंधन का नतीजा है लेकिन इनकी बढ़ती भूमिका को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता ।
एक जगह जब लोग कास्टीयो की बस पर हमला कर देते हैं तो वह उनके बीच चला जाता है । प्रदर्शनकारी प्रोफेसर से बहस करता है और भरोसा देता है कि बोलिविया को अमरीका के हाथों गिरवी नहीं रखेगा । यहीं पर वो एक नौजवान से कहता है कि नेता पिता की तरह होता है । कभी वह जनता से सख़्ती करता है तो कभी उसे प्यार करता है । नौजवान उसकी इस बात पर दिल लुटा बैठता है और उसकी जीत के लिए और अधिक निष्ठा से काम करने लगता है । जेन बार बार खुद क दिलासा देती है कि वो सिर्फ एक प्रोफ़ेशनल काम कर रही है । एक आदमी उसे सतर्क भी करता है कि इसके पीछे ड्रग्स कार्टेल है । लेकिन वो बस यह समझ कर किये जा रही है कि उसने जीताने का ठेका लिया है
कास्टीयो मामूली अंतर से जीत जाता है । जीतते ही प्रचार टीम को अपने से अलग कर देता है । वो लड़का जो उससे काफी प्रभावित था, एक तोहफ़ा लेकर जाता है लेकिन जीत के बाद अधिकारियों से घिरा कास्टीयो ऐसे देखता है जैसे कभी मिला ही न हो । लड़के को सदमा लगता है । जेन इस जीत से ख़ुश नहीं है । वो और उसकी टीम के सदस्य बोलिविया से जाने के लिए रवाना हो रहे हैं ।
तभी देखते हैं कि कास्टीयो की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए हैं । पुलिस उन पर लाठी बरसाती है । कास्टीयो तानाशाह साबित होता है । अब वो लड़का कास्टीयो के खिलाफ प्रदर्शनकारियों की टोली में शामिल हो जाता है । जेन भी कार से उतर कर लोकतंत्र को बचाने के संघर्ष में शामिल हो जाती है ।
फ़िल्म एक सबक है । हमलोग देर से जागते हैं । यह फ़िल्म गहरी नींद से एक झटके की तरह जगाती है । प्रचार प्रबंधकों के दम पर जनता के बीच नेता के प्रति जुनून तो पैदा किया जा सकता है लेकिन क्या वो नेता जनता के लिए है भी । लोकतंत्र के सवालों का गलाघोंट कर आखिर वो किस लोक के लिए देवदूत के रूप में गढ़ा जाता है । जेन तो अपनी जीत पर प्रायश्चित करने चली जाती है मगर अक्सर ऐसा नहीं होता । ओबामा के राष्ट्रपति बनने के पीछे प्रचार की ऐसी ही कहानी है । audacity to win नाम से किताब है जो उनके प्रचार प्रबंधकों ने लिखी थी । पढ़ियेगा । मैंने फ़िल्म की कहानी ही लिख दी ताकि आप न देखकर भी कुछ तो देख सकें ।
कोर्टात पत्रकारांना वकीलांकडुन मारहाण - JNU Issue
पतियाला हाउस कोर्टासमोर मी पोहोचलो तेव्हा दुपारचे अडीच वाजले होते. सेक्युरीटी गेटमधून पुढे येताच मला दिसलं- काही वकील एका तरुणाला मारत होते. मारहाण करणारे 'हा देशद्रोही आहे' अशा घोषणा देत होते. 'जेएनयुच्या विद्यार्थ्यांसारखे' कपडे घातलेल्या कुणालाही झोडपले जात होते. इंडियन एक्सप्रेसमधील माझ्या सहका-यांना संपर्क करण्यासाठी फोन करु लागलो तेव्हा माझ्याजवळ काही लोक आले ते म्हणाले, " याचं व्हिडिओ शूटिंग करु नका" मी व्हिडीओ शूटिंग करत नाही तर कॉल करतआहे, असं मी सांगितलं तर मला थोबाडीत मारली गेली. माझा फोन हिसकावून ताब्यात घेण्यात आला.दहाबारा जणांचा घोळका माझ्याजवळ आला मला थपडा मारण्यात आल्या. डोक्यावर आपटलं गेलं. बाजूला पोलिस उभे होते. ते केवळ बघत उभे होते. " याने व्हिडीओ रेकॉर्डिंग केलंय. याला इथून हाकला" असे आवाज येत होते. पुन्हा माझ्याजवळ एक वकील आला नि त्यानेही मला मारहाण केली. अखेरीस दुसरा एक वकील आला त्यानेच मला या जमावापासून सोडवलं. मी माझा फोन मागितला. तर संपूर्ण स्क्रीन क्रॅक करुन मला माझा मोबाइल देण्यात आला. मी गेटकडे निघालो तेव्हा आणखीही काही पत्रकारांना वकीलांनी घेराव घातला होता. त्यांचा पाठलाग करत होते. डीएनए वृत्तपत्राचा आझानलाही असाच त्रास दिला गेल्याचं मला दिसलं. स्कॅनर मशीनजवळ उभ्या असलेल्या पोलिसाला मी विचारलं-
" मला का मारलं गेलं ? मीडियाला का टार्गेट केलं जातंय ? तुम्हीआमच्या मदतीला का आला नाहीत ?"
मख्ख चेह-याने पोलिस म्हणाला, " पुन्हा असं घडण्याआधी इथून पळ काढा"
मी गेट नं २ कडे गेलो जिथून इंडिया गेट सुरु होते !
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अलोक सिंग
इंडियन एक्सप्रेस
संघ परिवार एफ टी आय ...नंतर हैदराबाद केंद्रीय विद्यापीठ व आता जे एन यु च्या मागे लागलाय ..
" चून चून के मारेंगे "
पद्धतीने हे घडतंय ..
ज्या विद्यार्थ्यांनी देशा विरुद्ध घोषणा दिल्या त्यांनी
चूक केलीय हे
खरेच ...पण जे एन यु मधील प्रकाराचा फायदा घेऊन आता तेथील डाव्यांना च नव्हे तर सर्व पुरोगाम्यांना टार्गेट करण्याचे षडयंत्र आहे ...
जे एन यु मध्ये इमर्जन्सी सदृश्य परिस्थिती आहे ...
देशभर फासिझामचा नंगा नाच सुरु झालाय ....
Government is giving over reaction...
In the ñame of fringe elements they r now targeting the all liberal voices
एक कृती जुलुमाची लेखक- प्रताप भानू मेहता ,इंडियन एक्स्प्रेस
इंडियन एक्स्प्रेस मध्ये काल प्रकाशित झालेला प्रताप भानू मेहता यांचा मुग्धा कर्णिक यांनी अनुवादित केलेला लेख ---- एक कृती जुलुमाची
लेखक- प्रताप भानू मेहता.
कन्हैय्या कुमार यांची अटक आणि जवाहरलाल नेहरू विद्यापीठ(जेएनयू) मधील राजकीय विरोधाचा आवाज दडपण्यासाठी चालवण्यात आलेले दमनसत्र आज इतकेच सुचवत आहे की आपण एका दुष्टतेने पिसाळलेल्या आणि राजकीय समज नसलेल्या शासनाच्या कारभारात जगत आहोत. घटनेच्या चौकटीतील देशप्रेमाविरुध्द आपल्याच विशिष्ट राष्ट्रवादाचे हत्यार पाजळून, विरुध्द राजकीय विचारांना ठेचण्यासाठी कायद्याचा जुलमी वापर करून, बारीकसारीक हेवेदावे तडीला नेण्यासाठी राजकीय सत्तेचा वापर करून, आणि संस्थात्मक कामे नष्ट करण्यासाठी प्रशासकीय सत्ता वापरण्याचे तंत्र या सरकारने अवलंबिले आहे. जेएनयूमध्ये राष्ट्रविरोधी घोषणा झाल्याचा दावा करून या दमनसत्रासाठी निमित्त केले गेले. अफझल गुरूच्या फाशीला एक वर्ष झाल्यानिमित्ताने एक सभा घेण्यात आली तेव्हा या घोषणा देण्यात आल्याचा दावा होता. पण या घटनेला सरकारने जो काही अतिशयोक्त प्रतिसाद दिला त्यातून दर्प येतो तो निव्वळ राज्यसत्तेच्या जुलमाचाच. कन्हैय्याकुमारच्या भाषणात राष्ट्रविघातक असे काहीही नसूनही सरकारने त्याच्या अटकेचे आदेश दिले.
केंद्रीय गृहमंत्री आणि मानव संसाधन मंत्री या दोघांनी “भारतमाते”च्या संरक्षणासाठी म्हणून ज्या काही क्षुब्ध गर्जना करून राष्ट्रविघातक कारवाया मोडून काढल्या जातील असे सांगितले त्यातून बरेच काही सूचित होत आहे. जे काही झाले त्यासंबंधीचा निर्णय सरकारच्या फार वरच्या वर्तुळातून घेतला गेला होता. कोणत्याही प्रकारचा विरोध सहन केला जाणार नाही याचेच स्पष्ट सूतोवाच सरकारने केले आहे. राजेरजवाड्यांच्या जमान्यातल्या राजनिष्ठेच्या व्याख्येप्रमाणेच राष्ट्रवाद ही केवळ आमचीच मक्तेदारी आहे हे या सरकारला पुढे आणायचे आहे असे स्वच्छ दिसते आहे. कोणत्याही प्रकारच्या हिंसेला पाठिंबा किंवा बळ देणारे भाषण नसतानाही त्यावर अशी कृती केली जाणे हे केवळ आपल्या पाशवी ताकदीचे प्रदर्शन करण्याच्या हेतूनेच केले गेले आहे. राष्ट्रद्रोहाचा कायदा काय आहे यासंबंधीच्या अज्ञानाचा फायदा घेऊन हे दमनसत्र सुरू करण्यात आले. वाः, काय सुरेख तंत्र आहे हे, अज्ञानाच्या मोळीलाच देशप्रेमाची तळपती मशाल बनवण्याचे. सरकारला केवळ वैचारिक विरोध मोडून काढायचा आहे असे नाही, तर विचारशक्तीच मोडून टाकायची आहे असे त्यांच्या विद्यापीठांवरील आक्रमणांतील सातत्यावरून दिसू लागले आहे.
सारी विचारशक्ती नष्ट करण्याची क्षमता असलेला एक विशिष्ट राष्ट्रवाद या देशाच्या जनतेला विकण्याचा त्यांचा डाव आहे. अनेक प्रश्न आहेत, त्या प्रश्नांबद्दल वैचारिक गोंधळ माजू देता कामा नये. काही विद्यार्थी खरोखरच त्यांच्या श्रध्दा, विश्वास याबाबत भरकटलेले असू शकतात. पण त्यांच्या मनांतल्या विचारांवर चर्चा होण्यासाठी विद्यापीठ हीच तर योग्य जागा आहे- होय, अगदी अफझल गुरूची फाशी हासुध्दा चर्चेचा विषय होऊ शकतोच. पण उदारमतवादी लोकशाही व्यवस्थेत बेकायदेशीर ठरेल असे काहीही त्यांनी मांडलेल्या विचारात असूच शकत नाही. एक समाज म्हणून आपण एक मूलभूत गोष्ट दृष्टीआड करू लागलो आहोत. राज्यव्यवस्थेची दमनशक्ती वापरण्याची वेळ कधी येते, तो उंबरठा कधी ओलांडावा सरकारने... कुणाचा तरी विरोध आहे म्हणून केवळ तो उंबरठा ओलांडता येत नाही. हे विद्यार्थी जी काही चर्चा करीत होते त्यावर टीका झाली असती, पण सरकारी दमनामुळे आता जणू त्या रास्त टीकेला विखार प्राप्त झाला आहे. हे लक्षात ठेवले पाहिजे, की खरा प्रश्न राष्ट्रप्रेमी कोण याची व्याख्या काय आहे आणि कोण राष्ट्रद्रोही आहे वा नाही हे ठरवण्याचा नाहीच. अनेक माध्यमे आणि बुध्दीवंत आज सहजपणे घोळात पडले आहेत, आणि वादाचा आकृतीबंध ठरवताना राष्ट्रवादाच्या प्रश्नाला त्यात स्थान देत आहेत. त्यामुळे अतिशयोक्तीचा धोका पत्करून आजघडीला हे ठासून सांगणे अत्यावश्यक झाले आहे, की राष्ट्रविरोधी असणे हा सुध्दा काही गुन्हा नाही. खरोखरच, जर राष्ट्रवादाची व्याख्या ही अगदीच संकुचित, चुरमडलेली असेल, कठोर टीकेला त्यात स्थान नसेल, जुलमी सत्ताबंधाशी ती जोडली गेली असेल, बुध्दीवादविरोधी अज्ञानावर त्याची दुकानदारी चालत असेल, आणि त्याचा उद्देशच हिंस्र भावनांवरील लगाम काढून टाकून त्या उधळू देण्याचा असेल तर- राष्ट्रविरोधी होणं हे आपलं कर्तव्यच ठरू शकतं.
ध्यानात ठेवा- असल्या राज्यसत्तेचे उद्दिष्टच स्वातंत्र्यप्रेमी असलेल्या सर्वांना, राज्यसत्तेवर कठोर टीका करणाऱ्या सर्वांना बचावात्मक पवित्र्यात लोटण्याचे असते. आपणा सर्वांनाच फितूर, गद्दार म्हणून घोषित करण्याचा हेतू आहे त्यांचा.
पण या सरकारचा हेतू दुष्ट असण्याबरोबरच ते राजकीय दृष्ट्या मूर्खही आहेत हे स्पष्ट होत आहे. एका मर्यादित अर्थाने हे नवे दमन या सरकारचा राजकीय कार्यक्रम यथायोग्य राबवत आहे: राष्ट्रवादावरील बडबड चर्चेत ठेवून त्यांना सामान्य जनतेला संभ्रमित करायचे आहे, आणि मग त्यांचे ध्रुवीकरण होऊ द्यायचे आहे. या सत्ताधाऱ्यांचा जुना आकस असलेले “डावे” जे कोणी असतील त्यांच्यावर अशा निर्मित संतापाचा रोख वळवून, त्याला हिंस्रतेचे खुले मैदान देण्याचा त्यांचा कार्यक्रम आहे. पण यामुळे राज्यसत्तेच्या विश्वासार्हतेला अनेक प्रकारे आणि दीर्घकालीन तडे जातात. विरोधकांना एकत्र येण्यासाठी आवश्यक असलेले एक ठोस कारण ते अशाप्रकारे पुरवत आहेत. अशा प्रकारचे सूडबुद्धीचे राजकारण करणारे सरकार या देशातील बहुसंख्यांना फार काळ बरोबर घेऊन जाऊ शकेल हे एकंदरीत कठीणच दिसते. यातून उठलेल्या गदारोळाचा बळी ठरेल आणखी एक संसद अधिवेशन. आणि असे केल्यास विरोधकांना दोष देता येणार नाही, ती योग्यच आणि सकारण कृती असेल. वैचारिक विरोधाचा बीमोड अशा प्रकारे केला जाणं हे सहन करण्यासारखं नाही.
काँग्रेस आणि डावे पक्ष यांची स्वतःची कारकीर्द अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याबाबत फार काही उजळ होती असे नाही, परंतु ही संधी घेऊन ते एक नवा आरंभ केल्याचे दाखवू शकतात. पण त्यांनीही हा धडा घेतला पाहिजे. काँग्रेस आणि डावे स्वतःच्या गुणगायनात मग्न राहून आपली कृत्ये लपवण्याचा प्रयत्न करीत असले तरीही या दोघांनीही राजकीय दमनाची हत्यारे तयार केली आणि वापरलीही- तीच हत्यारे आता भाजप निर्घृणपणे वापरत आहे. वैचारिक विरोधाचे राजकारण हे संधीसाधूपणाच्या राजकारणापासून विलग करण्याची, वैचारिक विरोधामागील तत्वाची सुटका करण्याची आता खरी गरज आहे.
विद्यार्थी संघटनांच्या राजकारणात सतत चालत आलेल्या बारीकसारीक कुरबुरींना राष्ट्रीय पातळीवरच्या राजकीय आपत्तीचे स्वरूप देऊन थयथयाट करणाऱ्या मंत्रीद्वयाने जे काही उद्योग केले, जे दमनसत्र सुरू केले त्यातून सरकारचीच न्यायनिर्णयन अपात्रताच सिध्द झाली आहे. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) विद्यापीठांच्या कारभारात विचारसरणीच्या मुद्द्यांवर सतत सरकारी हस्तक्षेप होण्याची धडपड करते आहे हे भविष्यातील राजकारणाच्या दृष्टीने चांगले संकेत देणारे नाही. जे डावे नाहीत त्यांनाही डाव्यांच्या खांद्याला खांदा लावून लढणे भाग पडावे अशी परिस्थिती त्यांनी निर्माण केली आहे. राष्ट्रीय बौध्दिक-वैचारिक वर्तुळांत जेएनयूचा प्रभाव बराचसा अस्तंगत होत चालला होता, भाजपने आपल्या कृतीने त्याचे पुनरुत्थान केले आहे. त्यांचे स्वतःचेच डाव्यांवरील टीकेचे जे मुद्दे होते त्या दृष्टीकोनातूनही हा स्वतःच्याच पायावर धोंडा मारून घेण्याचा प्रकार आहे. यातून एक गोष्ट पुरेशी स्पष्ट होते, ती म्हणजे, भाजपला स्वतःमधील हीन प्रवृत्तींपासून सुटका करून घेता येत नाही, जी काही ध्येयपूर्ती करायची आहे त्यासाठी लागणारा धीर, दीर्घदृष्टी त्यांच्यातले फुटकळ राजकारणाची हांव असलेले लोक दाखवणार नाहीत. आपली नियती काय असेल याबद्दल त्यांना गेल्या दोन वर्षांत काहीही शिकता आलेले नाही. सहिष्णुतेचा वाद त्यांच्या साऱ्या केल्या कामावर काळे करणार आहे. कुणालातरी भाजपविरोधाची कावीळ झाली आहे म्हणून हे कारस्थान होत आहे असे असत्य सांगितले जाईलही, पण तसे नाही. स्वातंत्र्याचे संरक्षण हा लोकशाहीचा जिवंत रक्तप्रवाह आहे. आणि या घटनेत भाजपनेच डावावरची बोली हकनाक वाढवायला सुरुवात केली आहे. भाजपला आणखी एक महत्त्वाचा पण लपलेला मुद्दा लक्षात आलेला नाही, की खरोखरच हिंसक अशी घटना अंतर्भूत नसेल तर अगदी राष्ट्रविरोधी बोलणारांनाही ढिले सोडणारी लोकशाही हीच बळकट लोकशाही असते. अगदी टोकाला जाऊन, मर्यादा ओलांडून बोलणारे लोकही सुरक्षित राहिले आहेत हे पाहून आपल्यालाही सुरक्षित वाटते.
या विद्यार्थ्यांनी जे काही केले त्यातून भारताला जो काही धोका होता असे म्हटले जाते त्यापेक्षा कैक पटींनी मोठा धोका या देशाच्या सरकारने मूलभूत स्वातंत्र्याची आणि न्यायनिर्णयाची पायमल्ली करून निर्माण केला आहे. या मान्यवर मंत्रीगणांनी हे समजून घ्यायला हवे, की जर ही चर्चा राष्ट्रवादावरचीच असेल तर जेएनयू नव्हे, तर त्यांनाच दोषी मानायला हवे. त्यांनी लोकशाहीवर आघात करू पाहिला आहे- आणि हे कृत्य सर्वाधिक राष्ट्रविघातक आहे.
(लेखक प्रतापभानू मेहता हे दिल्लीस्थित सेंटर ऑफ पॉलिसी रिसर्च या संस्थेचे अध्यक्ष आहेत, आणि इंडियन एक्स्प्रेसमध्ये नियमित लिहितात. मी या लेखाचा हा अनुवाद विषयाचे महत्त्व आणि तो मांडणाऱ्याची विश्लेषक प्रज्ञा लक्षात घेऊन केला आहे. त्यासाठी एक्स्प्रेसची किंवा प्रतापभानूंची परवानगी मिळवलेली नाही. पण केवळ मराठी वाचणाऱ्यांपर्यंत विषय पोहोचावा म्हणून हे केले आहे, हे लक्षात घेऊन त्यांनी मला क्षमा करावी.- मुग्धा कर्णिक)
जो हिंदू आहे,फक्त तोच देशभक्त? - मिलींद धुमाळे
जो हिंदू आहे,फक्त तोच देशभक्त?
- मिलींद धुमाळे.
आपल्याकडे एक गंमतच आहे, “मी हसतो दुसऱ्याला अन शेंबूड माझ्या नाकाला”अशी आपल्या सर्वांची गत आहे.आता जी उन्मादी पिढी आहे,विशेषतः ८०-९०च्या दशकातील आणि त्यानंतर जन्माला आलेली त्यांच्यात सारासार विवेकबुद्धी वापरण्याकडे कल अजिबात नसून प्रसारमाध्यमांवर विसंबून राहण्याचा विशेष भर आहे.यातही माहितीतंत्रज्ञानाचा स्फोट झाल्यामुळे सोशल मिडिया क्रांतिकारक माध्यम वाटत असला तरी इथे सेकंदा-सेकंदाला आदळणाऱ्या बातम्यांची विश्वासार्हता तपासायच्या फंदात कुणी पडत नाही. ज्यांना लोकशाहीचा चौथा आधारस्तंभ म्हणले जाते त्यांनीही आपली नैतिकता शेटजी-बनिया राजकारण्याच्या शेजेवर सजविण्यात धन्यता मानली आहे.त्यामुळे तत्व आणि विचार याच्याशी कुणाला सोयरसुतक राहिलेलं नाही.तेही एकवेळेस परवडले असते परंतु आता देशाच्या सार्वभौमत्वाशी खेळण्याचा विचित्र खेळ सुरु झाला आहे. देश आज भांडवलदारांच्या हाताचे खेळणे झाला आहे.
देशात कोणत्या मुद्यावर चर्चा झाली पाहिजे हे आता भांडवलादार उद्योगपतीच्या मर्जीवर विसंबले आहे.आपण नकळत या खेळाचा एक भाग होऊन जातो आहोत.तुम्हाला आज तेवढेच पुढ्यात ठेवले जाते जेवढे वाढले की गहजब आणि अस्वस्थता वाढेल, ही गोष्ट धार्मिक-जातीय गोष्टीशी इतकी घट्ट बसली आहे की तुम्हाला आवडो न आवडो त्याकडे ठरवूनही दुर्लक्ष करता येत नाही.मग अस्वस्थ मन काहीतरी प्रतिक्रिया दिल्याशिवाय रहात नाही. चित्रपटगृहात राष्ट्रगीतासाठी उभे राहण्याचा मुद्दा राष्ट्रीय पातळीवर चर्चिला जातो. देशभक्ती सिद्ध करण्यासाठी चित्रपट पाहण्या अगोदर उभे राहण्याचा बालीशपणा आपल्याच देशात चालू शकतो, देशाचे महत्व पटवून घेण्यासाठी “निदान” चित्रपट गृहात राष्ट्रगीत वाजविण्याची प्रथा सुरु झाली.हे खरे आपले अपयश नाही का? हे जसे चूक तसे शंभर–दीडशे भावनिक नाजूक बेंड असलेल्या हलक्या काळजाच्या भावना दुर्लक्षून त्यांच्या आग्रहाला नकार देत उभे न राहण्याचा बालिशपणा करणे हेही अक्षम्य आत्मघातकी.
१३ डिसेंबर २००१ साली संसदेवर हल्ला घडवून आणण्यात आला.या हल्ल्याचा सूत्रधार अफजल गुरूला फाशी सुनावण्यात आली.दिली. अफजलने चौकशीत अनेक गोष्टी कबूल केल्या होत्या,अतेरिकी पाकिस्तानातून आले हेही सांगितले.युट्युबवर त्याचे व्हिडीओ आहेत.झाल्या कृत्याबद्दल त्याने वेळोवेळी जाहीर पश्चाताप व्यक्त केला होता.गुन्हा केला हेही कबूल केले.आपल्या देशात फाशी देण्याबद्दल मतमतांतरे आहेत.फाशीच्या शिक्षेमुळे गुन्हे रोखण्याचा उद्देश पूर्ण होत नाही असे म्हणत भारताच्या दस्तुरखुद्द कायदे आयोगाने फाशीच्या शिक्षेला विरोध केला होता. असाच विरोध समाजकार्य करणाऱ्या अनेक व्यक्ती संघटना अभिनेते यांनी केला होता.अफजल गुरूला फाशी देण्यास भारिपचे अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर यांनी विरोध केला होता.अफझलला फाशी दिल्यास काश्मीरमधल्या दहशतवाद्यांसाठी तो हुतात्मा ठरेल,त्याऐवजी जेलमध्ये ठेवणंच चांगलं असं त्यावेळी आंबेडकर म्हणाले होते.अफजलला फाशी न देता जन्मठेप दिली असती तर? परंतु आपला सुडाग्नी थंड झाला नसता... अतिरेकी जिवंत असणे सहन झाले नसते.अतेरिकी जीव घेतात आपण वेगळे काय करतो? बरं फाशी दिल्याने अतिरेक्यांना दहशत वाटते? तर नाही त्यांना तर जन्नतमध्ये 72 हूर मिळणार आहेत,त्यामुळे ते आनंदाने मरायला तयार असतात. त्यांना मरणाचे भय नाही. ते हसत हसत ‘शहिद’ होतात.हे आपण लक्षात का घेत नाही? अफजलला फाशी दिली आणि त्या फाशीचा बदला घेण्यासाठी हैदराबादमध्ये बॉम्बस्फोट घडवून आणल्याची माहिती समोर आली होती.यात दहा जण मृत्यूमुखी पडले होते.
अफगाणिस्तानात मझार-ए-शरीफ येथे भारतीय वाणिज्य दूतावासावर केलेला दुसरा हल्ला हा अफजल गुरू याच्या फाशीचा बदला घेण्यासाठीच करण्यात आला होता, असे तपासात निष्पन्न झाले.या हल्ल्यात सामील चार दहशतवाद्यांनी त्यांच्या रक्ताने तसे भिंतीवर उर्दू भाषेत लिहून ठेवले होते.‘अफजल गुरू का इंतेकाम, एक शहीद हजार फिदाईन’ याकुब मेमनचे प्रकरण असेच आहे.त्याला फाशी देवू नये म्हणून भाजपचे खासदार शत्रुघ्न सिन्हा यांनी राष्ट्रपतीला पत्र लिहिले होते. रोहितला देशद्रोही ठरविणारे भाजपा खासदार शत्रुघ्न सिन्हा यांना देशद्रोही का मानत नाहीत? अशी सिलेक्टिव्ह देशभक्ती असू शकते काय? मुळात याकुब आरोपी नाही त्याला शिक्षा देऊ नका हा मुद्दाच नव्हता, तर कोणती शिक्षा दिली जावी हा मुद्दा आहे, “घर घर में पैदा होंगे याकुब” याचा अर्थ उन्मादात विवेक हरवल्यामुळे आपल्या शंभर ग्रॅम मेंदूत जात नाही. अफजल गुरूचा बदला घेण्यासाठी ज्या धमक्या देण्यात आल्या त्यानुसार याकुबमुळे सुद्धा तशीच परिस्थिती निर्माण झाली असती.हा कयास होता.ही भावना उलट देशाच्या सुरक्षेच्या काळजीतून आलेली. यावरून एखादी व्यक्ती देशद्रोही कशी काय ठरवली जाऊ शकते? हा लावलेला कयास काही चुकीचा नाही, कारण देशभरातून आयसीसमध्ये भरती होण्यासाठी अनेक तरूण तयार होते; त्यांची वेळीच धरपकड झाली हे आपले सुदैव. त्यामुळे द्वेषाची राजनीती कुठपर्यंत ताणत ठेवायची याचा विचार दोन्ही बाजूंनी झाला पाहिजे. कारण यात भरडला जाणार आहे तो सामान्य नागरिक.ज्याचा राजकारण, धर्मकारण याच्याशी थेट संबंध नाही.त्यामुळे दहशतवाद हिरवा असो नाहीतर भगवा त्यावर परिणामकारक उपाय योजनांची आवश्यकता आहे. केवळ फाशीने तो आटोक्यात येणार नाही.दादरीत मंदिराच्या भोंग्यावरून पद्धतशीर कट करून अखलकला मारण्यात आले.हि घटना देशभक्तीचे प्रतिक कशीकाय मानली जाईल? याचा अर्थ जो हिंदू आहे तोच देशभक्त अशी सरकार आणी सरकार समर्थकांची भूमिका दिसते.
वरवर कितीही सबका साथ सबका विकास अशी प्रलोभने दाखविली तरी सरकार हे भांडवलशाही व्यवस्थेला पूरक ठरते आहे,हे आता गुपित राहिलेले नाही. मुख्यमंत्र्यांनीही इथे आपले मत देण्याचा मोह टाळता आला नाही. हेडलीच्या जबानीवर संशय घेणारे देशद्रोही आहेत असे बालिश वक्तव्य राज्याचे नेतृत्व करणारी व्यक्ती करत असेल तर ते फार दुर्दैवी आहे.आज आपण राजकीय, आर्थिक आणि सामाजिकदृष्ट्या विभाजित आहोत.एकमेकांशी युद्धरत असलेल्या प्रतिस्पर्धी गटांत आपण विभागले गेलो आहोत.त्यामुळे अशावेळी जी प्रगल्भता हवी ती दाखविण्यासा प्रत्येकजण कमी पडतो आहे. शेतकरी आत्महत्या,महागाई ,भ्रष्टाचार ,काला धन, प्रत्येकाच्या खात्यात 15 लाख रुपये विकास मेक इन इंडिया वगैरे गोष्टीचे काय झाले? जनतेने बहुतेक या गोष्टींसाठीच मत दिले होते,आज ते मुद्देच गायब आहेत.