अपने पिछले कॉलम में मैंने लिखा था कि कैसे आज की राजनीति ने नेहरू और पटेल को आमने-सामने ला खड़ा किया है, जबकि आजादी मिलने के शुरुआती वर्षों में दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था। इस बार का कॉलम भारत के दो अन्य महान भारतीयों गांधी और अंबेडकर पर केंद्रित है। अक्सर यह पूछा जाता है कि उनके दृष्टिकोणों में टकराव था या फिर वे एक दूसरे के पूरक थे?
पटेल और नेहरू के विपरीत, जोकि लंबे समय तक कांग्रेस में सहयोगी की तरह काम करते रहे, गांधी और आंबेडकर कभी एक पार्टी में साथ नहीं रहे। 1920 के मध्य में जब अंबेडकर विदेश से अपनी पढ़ाई कर स्वदेश लौटे थे, उस समय तक गांधी कांग्रेस की अगुआई में हो रहे स्वतंत्रता आंदोलन की कमान संभाल चुके थे। चारों ओर उनका आभामंडल फैल रहा था। वह महात्मा थे और हर कोई उनसे प्रभावित था।
लेकिन, जैसा कि दिवंगत डी आर नागराज ने कहीं लिखा, आंबेडकर भी गर्व के साथ गांधी के 'हनुमान' या 'सुग्रीव' की भूमिका निभाने को तैयार थे। उन्होंने राजनीति की अपनी रेखा खींची, जोकि गांधी और कांग्रेस पार्टी से स्वतंत्र, बल्कि उसकी विरोधी थी। 1930 और 1940 के दशकों में अंबेडकर ने गांधी की तीखी आलोचना की। उनका विचार था कि सफाई कर्मचारियों के उत्थान का गांधीवादी रास्ता कृपादृष्टि और नीचा दिखाने वाला है। गांधी अश्पृश्यता के दाग को हटाकर हिंदुत्व को शुद्ध करना चाहते थे। दूसरी ओर अंबेडकर ने हिंदुत्व को ही खारिज कर दिया था। उनका विचार था कि यदि दलित समान नागरिक की हैसियत पाना चाहते हैं, तो उन्हें किसी दूसरी आस्था को अपनाना पडे़गा। इसमें दो राय नहीं कि अंबेडकर और गांधी जिंदगीभर एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी बने रहे।
उनकी मौत के छह दशक बाद भी क्या हम उन्हें इसी रूप में देखते हैं? वामपंथी और दक्षिणपंथी सिद्धांतकार उन्हें इसी तरह देखते हैं। 1996 में अरुण शौरी ने 'फाल्स गॉड' नामक किताब लिखकर अंबेडकर को खारिज करने की कोशिश की थी। उन्होंने अंबेडकर पर दो प्रमुख आरोप लगाए थेः इनमें से पहला यह था कि उन्होंने राष्ट्रवादियों के बजाए ब्रिटिशों का पक्ष लिया था (भारत छोड़ो आंदोलन के समय वह वाइसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे)। और दूसरा आरोप था कि वह गांधी के विरुद्ध विवादास्पद और अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते थे। दो दशक बाद अरुण शौरी की वामपंथी समकक्ष के रूप में अरुंधती रॉय सामने आईं, जब उन्होंने किताबनुमा लंबे निबंध में गांधी को झूठा महात्मा बताकर खारिज किया। उन्होंने दावा किया कि गांधी जाति व्यवस्था के संकीर्ण समर्थक थे, जिन्होंने मंथर गति से अपना दृष्टिकोण बदला।
ऐसा लगता है कि अरुण शौरी और अरुधंती रॉय नायकों और खलनायकों के संदर्भ इतिहास को काले और सफेद के रूप में आरपार देखना चाहते हैं। जबकि एक इतिहासकार को धुंधले से भी सूक्ष्म अंतर के प्रति भी सजग होना चाहिए। लिहाजा अरुण शौरी से पलटकर यह पूछा जा सकता है कि आखिर अंबेडकर ब्रिटिश के साथ क्यों थे? ऐसा इसलिए था, क्योंकि कांग्रेस में ब्राह्मणों का वर्चस्व था, जोकि अतीत में दलितों का उत्पीड़न कर चुके थे और स्वतंत्र भारत में सत्ता में आने के बाद फिर से ऐसा कर सकते थे। इसी वजह से निचली जाति के महान सुधारक ज्योतिबा फूले और मंगू राम (पंजाब में आदि धर्म आंदोलन के नेता) भी कांग्रेस की तुलना में राज को कम नुक्सानदेह मानते थे।
जहां तक रॉय की बात है, तो उन्होंने गांधी को संदर्भ से काटकर देखा है इसलिए वह उन्हें मंथर गति से चलने वाले सुधारक लगे। डेनिस डाल्टन, मार्क लिंडले और अनिल नौरिया जैसे विद्वानों ने बताया है कि गांधी निरंतर जाति के मुखर आलोचक होते चले गए। शुरुआत में उन्होंने सिर्फ छुआछूत की आलोचना की और जाति के अन्य नियमों को वैसे ही रहने दिया। इसके बाद उन्होंने मंदिर में प्रवेश का आंदोलन चलाया और साझा मिलन और साझा भोज की वकालत की शुरू की। और अंत में उन्होंने अपने आश्रम में एक दलित और एक सवर्ण के विवाह की ही अनुमति दी और इस तरह उन्होंने जाति व्यवस्था की बुनियाद को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। छुआछूत खत्म करने के गांधी के अभियान को आज के वामपंथी भले ही बहुत ही तुच्छ मान रहे हों, मगर उस वक्त यह बहुत ही साहस का काम था। हिंदू धर्मनिष्ठा में यह गहरे तक समाया हुआ है। शंकराचार्यों को यह नागवार गुजरा था कि एक साधारण बनिया, जिसे संस्कृत भी ठीक से नहीं आती, उन धार्मिक अभिलेखों को चुनौती दे रहा है जिनमें अश्पृश्यता को अनिवार्य बताया गया है। उन्होंने औपनिवेशिक प्राधिकारियों से गांधी को हिंदू धर्म से बहिष्कृत करने की मांग तक कर डाली। 1933-34 के दौरान जब गांधी छुआछूत विरोधी यात्रा पर निकले थे, हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए और उन पर मल भी फेंका गया। जून, 1934 में पुणे में उनकी हत्या तक करने की कोशिश की गई थी।
कांग्रेस का अभियान उनकी अपनी ही पार्टी में अलोकप्रिय था। नेहरू, बोस और पटेल सहित अन्य नेता मानते थे कि महात्मा को सामाजिक सुधार के कार्यक्रम को किनारे कर अपना पूरा ध्यान स्वराज हासिल करने पर केंद्रित करना चाहिए।
यह उल्लेखनीय है कि गांधी ने नेहरू और पटेल की असहमितयों के बावजूद उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में अंबेडकर को शामिल करने के लिए राजी किया। गांधी ने उनसे कहा कि स्वतंत्रता कांग्रेस को नहीं, बल्कि देश को मिली है। उन्होंने कहा कि पहले मंत्रिमंडल में सबसे अच्छी प्रतिभाओं को शामिल किया जाना चाहिए फिर ऐसे शख्स किसी भी दल से जुड़े क्यों न हों। इस तरह अंबेडकर कानून मंत्री बने।जो लोग गांधी-अंबेडकर रिश्ते का सघन और अकादमिक आकलन करना चाहते हैं उन्हें डी आर नागराज की किताब 'द फ्लेमिंग फीट' पढ़नी चाहिए। नागराज लिखते हैं कि वर्तमान समय को देखें तो इन दोनों को एक साथ जोड़कर देखने की बेहद जरूरत है। यह बात पूरी तरह सच है। सामाजिक सुधार तभी आकार लेते हैं जब ऊपर से और एकदम नीचे से दबाव बने। दासता से मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती थी, जब तक कि अब्राहम लिंकन जैसे अपराधबोध से ग्रस्त श्वेत ने फ्रेडरिक डगलस जैसे आलोचकों को गंभीरता से नहीं लिया होता।
नागरिक अधिकार कानून का रूप नहीं ले पाता, यदि लिंडन जॉनसन ने मार्टिन लूथर किंग और उनके आंदोलन की नैतिक ताकत को नहीं पहचाना होता।वे दोनों हालांकि जिंदगी भर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बने रहे, लेकिन यदि कोई इतिहास को तटस्थ होकर देखे तो उसे नजर आएगा कि गांधी और अंबेडकर ने अपमानजनक सामाजिक व्यवस्था को कमजोर करने में पूरक भूमिका निभाई। किसी भी उच्च जाति के किसी हिंदू ने अश्पृश्यता को उतनी चुनौती नहीं दी जैसा कि गांधी ने दी थी। और इसमें दो राय नहीं हो सकती दलितों के बीच से अंबेडकर के रूप में सबसे महान नेता उभरकर सामने आया। कानूनन बेशक छुआछूत खत्म हो गया है, लेकिन भारत के कई हिस्सों में आज भी दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है। इसे पूरी तरह खत्म करने के लिए हमें अंबेडकर और गांधी दोनों की विरासत की जरूरत है।
खूपच चांगली मांडणी आहे.पण हल्ली जे सामाजिक किंवा राजकीय काम करत आहेत ते या दोघांच्याही फक्त नावाचा वापर करतात. गांधी आणि आंबेडकर एकत्र समजून घेण्याची नितांत गरज आहे.
ReplyDeleteVery nice
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